सोचिए अगर एक सुबह आपको सिर्फ इसलिए घर से उठा लिया जाए क्योंकि आपकी भाषा, आपका धर्म या आपका पहनावा किसी को ‘विदेशी’ जैसा लग रहा है। आपका आधार कार्ड, वोटर ID, यहां तक कि आपकी नागरिकता भी कोई मायने नहीं रखती।और आपको जबरन उस देश में धकेल दिया जाए जिससे आपका कोई लेना-देना ही नहीं। कुछ ऐसा ही हो रहा है भारत के भीतर खासकर बंगाली भाषी मुसलमानों के साथ। यह दावा किया है Human Rights Watch (HRW) ने अपनी ताज़ा रिपोर्ट में।
रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले कुछ हफ्तों में भारत से 1,500 से ज़्यादा बंगाली मुसलमानों को बांग्लादेश भेज दिया गया है वो भी बिना किसी कानूनी प्रक्रिया के। इनमें से कई लोग भारतीय नागरिक थे जो असम, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, ओडिशा और राजस्थान जैसे राज्यों में रहते थे। HRW का कहना है कि इन लोगों को ‘घुसपैठिया’ बताकर सीधे बॉर्डर पर ले जाकर बांग्लादेश में धकेल दिया गया। कुछ मामलों में तो सैनिकों द्वारा पीट-पीटकर उन्हें बॉर्डर पार करने पर मजबूर किया गया।
Human Rights Watch ने जून में 18 लोगों से बात की जिनमें से कुछ खुद निर्वासित हुए थे, और कुछ उन परिवारों के सदस्य थे जिनके अपने अब भी लापता हैं। कुछ लोग जब किसी तरह भारत लौटे, तो उन्होंने बताया कि उनके पास वोटर कार्ड, राशन कार्ड और आधार कार्ड जैसे दस्तावेज थे, लेकिन किसी ने उन्हें सुना ही नहीं। 8 जुलाई को HRW ने अपनी पूरी रिपोर्ट भारत सरकार को भेजी लेकिन गृह मंत्रालय की तरफ से कोई जवाब नहीं आया।
रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि कई राज्यों में गरीब बंगाली मुस्लिम मजदूरों को निशाना बनाया गया, जो दूसरे राज्यों में काम करने गए थे। बिना यह जांचे कि वे नागरिक हैं या नहीं, उन्हें सीधे BSF (सीमा सुरक्षा बल) के हवाले कर दिया गया। बॉर्डर गार्ड बांग्लादेश ने खुद कहा कि 7 मई से 15 जून के बीच भारत ने करीब 1,500 लोगों को ज़बरन बॉर्डर पार करवाया। इनमें से करीब 100 रोहिंग्या शरणार्थी भी थे, जिन्हें असम से निकालकर बांग्लादेश भेज दिया गया।”
सबसे हैरान कर देने वाला आरोप यह है कि भारत ने करीब 40 रोहिंग्या लोगों को समुद्र में छोड़ दिया। UN के स्पेशल रैपोर्टर टॉम एंड्रयूज़ ने इस घटना को ‘मानवता पर धब्बा’ बताया।इन लोगों को लाइफ जैकेट पहनाकर समुद्र में उतार दिया गया, और कहा गया ‘जाओ, तैरकर म्यांमार चले जाओ!’यह ‘नॉन-रिफाउलमेंट’ के सिद्धांत का गंभीर उल्लंघन है जिसके तहत किसी भी व्यक्ति को ऐसे देश नहीं भेजा जा सकता जहां उसकी जान को खतरा हो।”
जब यह मामला भारत की सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा, तो कोर्ट ने इस पर रोक लगाने से इनकार कर दिया। कोर्ट ने कहा अगर किसी को भारतीय कानून के मुताबिक विदेशी पाया जाता है, तो उसे देश से निकाला जा सकता है। 16 मई को, जब रोहिंग्या को समुद्र में उतारे जाने की रिपोर्ट आई, तो कोर्ट ने कहा ‘इस पर कोई सबूत नहीं है, यह एक खूबसूरती से गढ़ी गई कहानी लगती है।HRW ने सीधे तौर पर आरोप लगाया है कि यह कार्रवाई केंद्र की बीजेपी सरकार और बीजेपी-शासित राज्यों द्वारा की जा रही है।उनका कहना है कि ‘यह सिर्फ अवैध घुसपैठियों के खिलाफ कार्रवाई नहीं, बल्कि एक खास समुदाय के खिलाफ भेदभावपूर्ण नीति है।’ HRW की एशिया डायरेक्टर ऐलेन पियर्सन ने कहा भारत अपनी शरण परंपरा और लोकतांत्रिक पहचान को पीछे छोड़ रहा है।’ पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी सवाल उठाया ‘क्या बंगाली भाषा बोलना अब जुर्म हो गया है? सिर्फ बंगाली बोलने वालों को बांग्लादेशी कह देना शर्मनाक है।
तो अब सवाल ये है क्या भारत में अब किसी की नागरिकता उसकी कागज़ी पहचान से नहीं, उसकी भाषा और धर्म से तय की जाएगी? क्या ये देश, जिसने दशकों तक दुनिया भर के शरणार्थियों को जगह दी, अब खुद अपने नागरिकों को धकेल रहा है? जब लोकतंत्र में पहचान को धर्म और भाषा से जोड़ा जाने लगे, तो इंसाफ, संविधान और इंसानियत तीनों कमजोर पड़ जाते हैं।जहां एक तरफ भारत सरकार बांग्लादेशी घुसपैठ रोकने का दावा कर रही है, वहीं दूसरी तरफ देश के कई राज्यों में बंगाली मुसलमानों के घर बुलडोज़र से गिराए जा रहे हैं।
असम में अब तक हज़ारों घर तोड़े जा चुके हैं। उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों में ‘अवैध बस्ती हटाने’ के नाम पर सैकड़ों परिवारों को बेघर किया गया। गुजरात और महाराष्ट्र में भी घुसपैठिए करार देकर लोगों के घरों पर कार्रवाई हुई है। ओडिशा और राजस्थान में बीजेपी सरकारों ने ‘बांग्लादेशी’ टैग लगाकर कई बस्तियों को खाली करवाया है। सरकार कहती है कि ये सब ‘अवैध घुसपैठियों’ के खिलाफ है। लेकिन जब दस्तावेज़ दिखाने वाले लोगों के घर भी तोड़े जाते हैं, तो सवाल उठता है
‘घुसपैठिया कौन है?’ तय कौन करेगा? और क्या दस्तावेज़ भी अब बेकार हो गए हैं?’ क्या ये सिर्फ सीमाओं की सुरक्षा है,या फिर एक खास धर्म और भाषा के लोगों को निशाना बनाने की रणनीति? आज हम सबको ये सवाल खुद से पूछना चाहिए क्या हम सच में ‘अवैध घुसपैठ’ रोक रहे हैं या लोकतंत्र और इंसानियत की दीवारें खुद गिरा रहे हैं? क्या ‘बांग्लादेशी’ शब्द अब एक सियासी हथियार बन चुका है?