4 जुलाई 2025, महाराष्ट्र के पुणे ज़िले के मंचर कस्बे में एक चौंकाने वाली घटना हुई, जहां पत्रकार स्नेहा बर्वे पर रिपोर्टिंग के दौरान कुछ गुंडों ने लाठियों और डंडों से हमला कर दिया। स्नेहा बर्वे ‘समर्थ भारत’ अख़बार और SBP यूट्यूब चैनल की एडिटर हैं।
घटना का वीडियो हुआ वायरल
इस हमले का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो चुका है, जिसमें साफ देखा जा सकता है कि कैसे स्नेहा मदद के लिए चिल्ला रही थीं और कुछ लोग उन्हें बेरहमी से पीट रहे थे। जो लोग उन्हें बचाने आए, उन्हें भी पीटा गया।
क्यों हुआ हमला?
स्नेहा बर्वे को मंचर में एक नदी किनारे अवैध निर्माण पर रिपोर्टिंग के लिए बुलाया गया था। सर्वे नंबर 41/1 पर एक शेड और दुकान के अवैध निर्माण की खबर मिलने के बाद वे वहां सब्ज़ी विक्रेता सुधाकर बबुराव काले के साथ पहुंचीं। तभी वहां पांडुरंग मोरडे, उसके बेटे प्रशांत और निलेश मोरडे समेत करीब 12 लोग आए और उन्होंने स्नेहा और बाकी लोगों पर हमला कर दिया।हमले में स्नेहा को इतनी चोटें आईं कि वो बेहोश हो गईं। उन्हें तुरंत पिंपरी के DY पाटिल हॉस्पिटल ले जाया गया, जहां वे अब भी इलाज के लिए रोज़ जा रही हैं। उन्हें सिरदर्द और सूजन की शिकायत है।
केस दर्ज, लेकिन मामूली धाराएं
मंचर पुलिस स्टेशन में आरोपियों के खिलाफ केस दर्ज किया गया है।
FIR में जो धाराएं लगाई गईं वे हैं:
- धारा 118(2), 115(2), 189(2), 191(2), 190 और 351(2)
ये सभी धाराएं 1-2 साल की सज़ा वाली कमज़ोर धाराएं हैं।
पत्रकार संगठनों का कहना है कि इतने गंभीर हमले के बावजूद पुलिस ने जानबूझकर हल्की धाराएं लगाईं ताकि आरोपी जल्द जमानत पा सकें।
मुख्य आरोपी का राजनीतिक संबंध?
मुख्य आरोपी पांडुरंग मोरडे एक स्थानीय व्यापारी है, और उसका पहले से आपराधिक रिकॉर्ड है। वह हत्या की कोशिश के एक मामले में पहले से ज़मानत पर बाहर था।बताया जा रहा है कि मोरडे के संबंध महाराष्ट्र की सत्ताधारी महायुति गठबंधन से हैं, जिसमें बीजेपी, शिवसेना और एनसीपी शामिल हैं।अब तक राज्य सरकार की तरफ से कोई प्रतिक्रिया या निंदा नहीं आई है, जो बेहद चिंता का विषय है।
पत्रकार संगठनों का गुस्सा
पत्रकार संगठनों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इस घटना की कड़ी निंदा की है। उनका कहना है कि
“जब एक महिला पत्रकार, जो जनता के लिए सच्चाई सामने ला रही थी, उस पर इस तरह का हमला होता है और आरोपी छूट जाते हैं, तो ये लोकतंत्र पर सीधा हमला है।”
निष्कर्ष:
इस घटना ने कई गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं –
- क्या अब पत्रकारों की जान की कोई कीमत नहीं रही?
- क्या सत्ताधारी नेताओं से जुड़े अपराधियों को ऐसे ही बचाया जाता रहेगा?
- क्या सच दिखाना अब खतरे से खाली नहीं?
लोकतंत्र में पत्रकारिता की सुरक्षा एक ज़रूरत है, न कि मेहरबानी।