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शिक्षा की आज़ादी बनाम विदेश नीति: तुर्की से टूटते तालीमी रिश्ते और AUSF की आवाज़

भारत की तीन नामी यूनिवर्सिटी – जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (JNU), जामिया मिल्लिया इस्लामिया (Jamia) और मौलाना आज़ाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी (MANUU) – ने हाल ही में तुर्की की यूनिवर्सिटियों के साथ अपने शैक्षणिक समझौतों (MoU) या तो सस्पेंड कर दिए या पूरी तरह से रद्द कर दिए हैं। इस घटनाक्रम ने तालीम और राजनीति की उस बहस को फिर से जिंदा कर दिया है, जहां सवाल उठता है – क्या विदेश नीति की तलवार यूनिवर्सिटी के क्लासरूम पर लटकेगी? क्या तालीमी रिश्ते राष्ट्रवाद की कसौटी पर तय होंगे?

क्या है पूरा मामला?

फरवरी 2025 में JNU और तुर्की की इनोनू यूनिवर्सिटी के बीच हुआ एक MoU, जिसमें छात्र-शिक्षक एक्सचेंज और रिसर्च सहयोग की बातें थीं, हाल ही में सस्पेंड कर दिया गया। इसी तर्ज़ पर Jamia Millia Islamia और Maulana Azad National Urdu University (MANUU) ने भी अपने-अपने MoU या तो निलंबित किए या उन्हें आगे नहीं बढ़ाया। सरकारी हलकों से इसकी वजह बताई गई – तुर्की का पाकिस्तान को समर्थन देना, खासकर तब जब भारत ने हाल में LoC पार आतंकी ठिकानों पर एयरस्ट्राइक की थी। तुर्की ने न सिर्फ पाकिस्तान का साथ दिया, बल्कि भारत की नीतियों – जैसे कश्मीर, CAA-NRC – की आलोचना भी करता रहा है।

MoU का मतलब क्या होता है?

MoU यानी “Memorandum of Understanding” – यह किसी दो संस्थानों के बीच एक औपचारिक समझौता होता है, जो कानूनी बाध्यता नहीं रखता, लेकिन साझा सहयोग का इरादा जताता है। इसमें छात्र और शिक्षक एक्सचेंज प्रोग्राम, रिसर्च प्रोजेक्ट, कॉन्फ्रेंस और सेमिनार जैसी चीज़ें होती हैं। यानी MoU सिर्फ़ एक काग़ज़ का टुकड़ा नहीं, बल्कि वह दरवाज़ा है जिससे भारत और तुर्की जैसे देशों के छात्र एक-दूसरे की संस्कृति, सोच, और शोध से जुड़ते हैं।

AUSF ने क्यों उठाई आवाज़?

AUSF यानी आज़ाद यूनाइटेड स्टूडेंट्स फेडरेशन ने 16 मई को एक सख़्त बयान जारी किया, “आतंकवाद या राजनीतिक विवादों का बहाना बनाकर तालीमी रिश्ते तोड़ना, ऊँची शिक्षा और अंतरराष्ट्रीय संवाद की आत्मा का गला घोंटना है।” उनका सीधा आरोप था कि ये कोई अकादमिक फ़ैसला नहीं, बल्कि राजनीतिक दबाव में उठाया गया कदम है। उन्होंने चेतावनी दी कि यूनिवर्सिटियों को “विचारों का समंदर” रहने दो, “RSS की शाखा” मत बनाओ जहां सिर्फ़ सरकार की लाइन ही सुनी जाए।

JNU, JMI और MANUU क्यों खास हैं इस विवाद में?

इन तीनों यूनिवर्सिटियों का शैक्षिक और वैचारिक इतिहास खासा समृद्ध है –

JNU को राजनीतिक विचार, बहस और वामपंथी चिंतन का गढ़ माना जाता है।

Jamia Millia Islamia, अल्पसंख्यक समुदाय की एक सशक्त आवाज़ और अकादमिक संस्थान है।

MANUU, उर्दू भाषा और मुस्लिम समाज की तालीम के लिए एक राष्ट्रीय केंद्र की तरह काम करता है।

ऐसे में जब इन्हीं संस्थाओं ने तुर्की से रिश्ते तोड़ने शुरू किए, तो छात्रों और शिक्षकों को लगा कि यह महज़ शिक्षा का मामला नहीं, बल्कि ऊपर से दबाव है – और इसीलिए AUSF की नाराज़गी सबसे तीखी रही।

राष्ट्रवाद और तालीम – कहां खिंच रही है रेखा?

AUSF का बयान सिर्फ MoU तक सीमित नहीं था। उनका इशारा साफ़ था – शिक्षा संस्थानों को एक विचारधारा की प्रयोगशाला बनाया जा रहा है. “जब यूनिवर्सिटी में सिर्फ़ सरकार की लाइन चले, जब विरोध या सवाल उठाना अपराध बन जाए, जब अंतरराष्ट्रीय रिश्तों को भी राष्ट्रवाद की कसौटी पर तौला जाए, और जब छात्रों के लिए सिर्फ़ एक ही विचारधारा मान्य हो – तो ये शिक्षा नहीं, ब्रेनवॉशिंग का अड्डा बन जाता है।”

भारत और तुर्की के बीच राजनीतिक मतभेद रहे हैं –

कश्मीर पर तुर्की की बयानबाज़ी

CAA और NRC का विरोध

पाकिस्तान से उसकी नज़दीकी

भारत की एयरस्ट्राइक पर तुर्की का पाकिस्तान के पक्ष में खड़ा होना

मोदी सरकार इन बातों को गंभीरता से लेती रही है, और अब लगता है कि यही दृष्टिकोण शिक्षा नीति पर भी हावी हो गया है। सवाल ये है कि क्या सरकार की नाराज़गी की क़ीमत छात्रों को चुकानी चाहिए?

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