ऑपरेशन सिंदूर पर सोशल मीडिया पोस्ट को लेकर गिरफ्तार किए गए अशोका यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर अली खान महमूदाबाद को सुप्रीम कोर्ट ने अंतरिम ज़मानत बढ़ा दी है, लेकिन कोर्ट ने साफ किया कि वह अब इस मामले से जुड़ी कोई भी ऑनलाइन पोस्ट, लेख या भाषण नहीं दे सकते।
न्यायमूर्ति सूर्यकांत और दीपांकर दत्ता की पीठ ने 21 मई को दी गई अंतरिम ज़मानत की शर्तों को फिलहाल बदलने से इनकार कर दिया। कोर्ट ने यह भी कहा कि प्रोफेसर को अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार है, लेकिन वह उन दो सोशल मीडिया पोस्टों से जुड़े मामलों में किसी भी तरह की सार्वजनिक राय नहीं दे सकते।
जांच पर सुप्रीम कोर्ट की सख्ती
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि जांच केवल दो एफआईआर तक सीमित रहे और हरियाणा पुलिस को “दाएँ-बाएँ” जाकर अनावश्यक दबाव नहीं बनाना चाहिए। कोर्ट ने पुलिस से उन डिवाइसों की सूची मांगी है जिन्हें वह जांच के लिए ज़ब्त करना चाहती है। साथ ही, कोर्ट ने पुलिस से यह भी पूछा है कि उन्होंने इस मामले में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) को क्या जवाब दिया है।
NHRC ने 21 मई को मीडिया रिपोर्टों का स्वतः संज्ञान लेते हुए कहा था कि प्रोफेसर अली की गिरफ्तारी मानवाधिकार उल्लंघन का मामला बन सकती है। आयोग ने इस गिरफ्तारी को “व्यक्तिगत स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की आज़ादी पर खतरा” बताते हुए हरियाणा पुलिस को नोटिस भेजा था।
क्या है पूरा मामला?
हरियाणा के सोनीपत ज़िले के राई थाने में प्रोफेसर अली खान महमूदाबाद के खिलाफ दो एफआईआर दर्ज हुई थीं:
पहली एफआईआर: हरियाणा महिला आयोग की चेयरपर्सन रेनू भाटिया की शिकायत पर
दूसरी एफआईआर: एक गांव के सरपंच की शिकायत पर
इन दोनों मामलों में उन पर भारत की अखंडता को खतरे में डालने, महिला की मर्यादा भंग करने, धार्मिक समूहों में नफ़रत फैलाने और सार्वजनिक उपद्रव को बढ़ावा देने जैसी धाराएँ लगाई गई हैं। FIR में BNS की धाराएँ 152, 353, 79 और 196(1) लगाई गई हैं।
प्रोफेसर को 18 मई को गिरफ्तार किया गया था, और उनके पोस्ट को “देश की संप्रभुता के लिए खतरा” बताया गया था। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने गिरफ्तारी पर जांच रोकने से इनकार कर दिया, लेकिन ज़मानत के आदेश के साथ एक तीन सदस्यीय विशेष जांच टीम (SIT) गठित करने का निर्देश भी दिया।
शिक्षाविदों और राजनीतिक दलों का विरोध
प्रोफेसर अली खान की गिरफ्तारी के बाद कई शिक्षाविदों, विश्वविद्यालयों और राजनीतिक दलों ने इसे “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला” बताया है। सोशल मीडिया पर भी इस मुद्दे को लेकर बहस छिड़ी हुई है और कई लोगों ने सरकार पर “विचारधारा के नाम पर दमन” का आरोप लगाया है।
👉 निष्कर्ष: