एक तरफ़ ईरान है पश्चिम एशिया की इकलौती इस्लामिक ताक़त, जो इसराइल को ‘कैंसर’ कहता है।दूसरी तरफ़ है इसराइल जो हर हाल में ईरान के परमाणु सपने को कुचल देना चाहता है।और इस युद्ध के बीच खामोश खड़े हैं वो सारे इस्लामिक देश,जो कभी एकता की कसमें खाया करते थे…”तो सवाल ये है – क्या मुस्लिम देश कभी इसराइल के ख़िलाफ़ एकजुट हो सकते हैं?या फिर ये सिर्फ़ भाषणों और नारों तक ही सीमित रहेगा? बात करेंगे मुस्लिम दुनिया की अंदरूनी टूट, इसराइल की रणनीति, और ईरान की अकेली लड़ाई के पीछे छिपे सच की।
1974 में पाकिस्तान के लाहौर में जब OIC यानी ऑर्गनाइज़ेशन ऑफ इस्लामिक कोऑपरेशन का सम्मेलन हुआ था, तो पाकिस्तान के प्रधानमंत्री ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो ने कहा था कि पाकिस्तान इस्लाम के लिए खून का हर कतरा देने को तैयार है। उन्होंने इसे कोई भावनात्मक बयान नहीं बताया, बल्कि ये कहा कि पाकिस्तान के सैनिक, अल्लाह के सैनिक हैं। उस समय सऊदी किंग फैसल भी मौजूद थे। वो दौर था जब इस्लामिक देशों की एकता की उम्मीदें जग रही थीं।
लेकिन 5 साल के अंदर ही मिस्र ने इसराइल को एक देश के रूप में मान्यता दे दी। और धीरे-धीरे कई इस्लामी देश इसराइल से रिश्ते सामान्य करने लगे। जॉर्डन 1994 में जुड़ा और 2020 में तो यूएई, बहरीन, सूडान और मोरक्को ने भी अब्राहम अकॉर्ड के तहत इसराइल से संबंध स्थापित कर लिए। इससे इसराइल को ये भरोसा मिला कि क्षेत्रीय राजनीति में धर्म से ज़्यादा महत्व कूटनीति और राष्ट्रीय हितों का है।
अब 2025 की बात करें तो ईरान और इसराइल के बीच ज़बरदस्त सैन्य तनाव चल रहा है। इसराइल ने 12 जून से ईरान के कई मिलिट्री और न्यूक्लियर ठिकानों पर हमला किया है। जवाब में ईरान ने भी मिसाइलें दागी हैं। लेकिन जिस तरह से मुस्लिम देशों की ओर से ठंडी प्रतिक्रिया आई है – उसने एक बड़ा सवाल खड़ा कर दिया: क्या मुस्लिम देश सच में एकजुट हो सकते हैं?
मुस्लिम देशों के आपसी मतभेद
हकीकत यह है कि इस्लामिक देशों के आपसी रिश्ते आपसी अविश्वास और संघर्षों से भरे हैं। सऊदी अरब और ईरान के बीच दशकों पुराना टकराव सिर्फ शिया-सुन्नी विवाद नहीं है, बल्कि वर्चस्व की लड़ाई है। तुर्की और ईरान, दोनों खुद को मुस्लिम नेतृत्व के केंद्र में देखना चाहते हैं। वहीं पाकिस्तान और ईरान के रिश्ते हमेशा संतुलन के मोड में रहे हैं — क्योंकि पाकिस्तान एक ओर अमेरिका के खेमे में रहा, दूसरी ओर ईरान से धार्मिक जुड़ाव भी बनाए रखा।
तुर्की, जो इसराइल की आलोचना करता है, उसी तुर्की के इसराइल से 1949 से ही कूटनीतिक संबंध हैं। खुद राष्ट्रपति अर्दोआन 2005 में इसराइल दौरे पर गए थे और उन्होंने ईरान के न्यूक्लियर प्रोग्राम को ‘खतरा’ कहा था। UAE और बहरीन ने भी 2020 में इसराइल से रिश्ते सामान्य किए, क्योंकि अमेरिका की गारंटी और व्यापारिक फायदे उन्हें ज़्यादा अहम लगे।
अमेरिका की रणनीतिक पकड़
आज अमेरिका का असर इतना गहरा है कि गल्फ के देशों में 70 हज़ार अमेरिकी सैनिक तैनात हैं। इन सैनिकों पर स्थानीय कानून लागू नहीं होते। इन देशों में अमेरिका के बड़े सैन्य अड्डे हैं — जैसे क़तर का अल-उदायद एयरबेस। और वहां से उड़ने वाले ड्रोन सीधे ईरान तक पहुंच सकते हैं। इसराइल को पता है कि इन देशों की सीमाएं और नीतियां अमेरिका से जुड़ी हैं, इसलिए वो मुस्लिम देशों की नाराज़गी से नहीं डरता।
OIC और अरब लीग जैसे संगठनों की ताक़त भी अब सिर्फ नाममात्र रह गई है। OIC 57 मुस्लिम देशों का संगठन है, लेकिन जब बात ईरान पर हमले की आई, तो न तो OIC ने कोई आपात बैठक बुलाई, न ही किसी तरह की बड़ी कार्रवाई की गई। इसकी निंदा तक व्यक्तिगत बयानों तक सीमित रह गई।
फिलिस्तीन और धर्म का सवाल
फिलिस्तीन के मुद्दे पर भी मुस्लिम देशों की एकता सिर्फ भाषणों और सोशल मीडिया पोस्ट तक सीमित रही है। जब ग़ज़ा में हजारों लोग मारे गए, तो भी अरब देशों की सरकारों ने ज्यादा कुछ नहीं किया। मिस्र ने ग़ज़ा बॉर्डर बंद रखा। जॉर्डन से होकर जाने वाले ड्रोन को रोका नहीं गया। ये सब दिखाता है कि अब धर्म से ज़्यादा रणनीतिक समझदारी और सत्ता की मजबूरियां देशों की प्राथमिकता हैं।
अगर ईरान हारता है तो क्या होगा?
अगर इस युद्ध में ईरान कमजोर होता है या हार जाता है, तो पश्चिम एशिया में इसराइल का दबदबा और बढ़ेगा। पहले ही सीरिया में ईरान-समर्थित सरकार को कमजोर किया जा चुका है। लेबनान में हिजबुल्लाह और ग़ज़ा में हमास जैसे गुट पहले ही घुटनों पर हैं। अमेरिका और इसराइल चाहते हैं कि अब ईरान को भी सीमित कर दिया जाए।
‘द हिंदू’ के संपादक स्टैनली जॉनी लिखते हैं कि ईरान की हार से रूस का प्रभाव भी घटेगा और चीन को गल्फ के तेल पर और ज़्यादा निर्भर रहना पड़ेगा। पश्चिम के लिए यह एक परफेक्ट जियोपॉलिटिकल मूव होगा।
इसराइल के नजरिए से देखा जाए तो मुस्लिम देशों की एकता की कल्पना भावनात्मक है, लेकिन व्यावहारिक नहीं। धार्मिक नारे, फिलिस्तीन के समर्थन की बातें और जज़्बात सब कुछ सोशल मीडिया तक सिमट चुके हैं। हकीकत में हर देश अपनी कुर्सी, सत्ता और रणनीतिक फायदों को धर्म से ऊपर रखता है और इसी वजह से मुस्लिम देशों का एकजुट होना इसराइल के लिए आज भी कोई बड़ा खतरा नहीं है।