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बिहार में वोटर लिस्ट से 52 लाख नाम गायब, चुनाव से पहले बवाल

बिहार में अगले कुछ महीनों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। लेकिन उससे पहले ही एक बड़ी हलचल शुरू हो गई है। चुनाव आयोग ने बिहार में चल रही ‘स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन’ यानी SIR प्रक्रिया के दौरान एक चौंकाने वाला खुलासा किया है राज्य की वोटर लिस्ट में 52 लाख से ज़्यादा गड़बड़ियां पाई गई हैं!

चुनाव आयोग ने बताया है कि उन्होंने अब तक 18.66 लाख ऐसे नाम पाए मिले जो लोग मर हैं, 26.01 लाख ऐसे वोटर जो दूसरी जगह शिफ्ट हो गए हैं, और 7.5 लाख ऐसे वोटर जो कई विधानसभा क्षेत्रों में दोबारा दर्ज हैं। इसके अलावा 11,484 ऐसे वोटर हैं जिनका पता ही नहीं चल पा रहा  यानि उनका रजिस्टर में नाम है, लेकिन घर पर कोई नहीं मिला।

अब अगर बात करें पूरे आंकड़े की, तो बिहार में 24 जून 2024 तक कुल 7.89 करोड़ वोटर दर्ज थे। चुनाव आयोग ने कहा कि उनमें से लगभग 90.67% लोगों ने अपनी एन्यूमरेशन फॉर्म (EF) जमा की है और 97.3% वोटरों का वेरिफिकेशन भी पूरा हो चुका है। लेकिन अब भी 21 लाख से ज़्यादा फॉर्म जमा नहीं हुए हैं, जिससे डेटा अधूरा बना हुआ है। इससे आने वाले वक्त में वोटरों के नाम कटने और उनके मतदान अधिकार पर संकट खड़ा हो सकता है।

इस पूरी प्रक्रिया में बड़ी संख्या में लोग लगे हुए हैं। लगभग 1 लाख बूथ लेवल अधिकारी , 4 लाख वॉलंटियर्स, और 1.5 लाख पार्टी एजेंट्स इस काम में लगे हैं। चुनाव आयोग का कहना है कि यह काम हर मतदाता को सही तरीके से रजिस्टर करने के लिए किया जा रहा है। लेकिन विपक्षी पार्टियों का आरोप है कि यह प्रक्रिया गरीबों, दलितों, और प्रवासी मजदूरों के खिलाफ जा रही है।

अब इस मुद्दे पर राजनीतिक बवाल भी तेज़ हो गया है।RJD सांसद मनोज झा, TMC सांसद महुआ मोइत्रा,  कांग्रेस के केसी वेणुगोपाल, एनसीपी (SP) की सुप्रिया सुले, सीपीआई नेता डी. राजा,समाजवादी पार्टी, शिवसेना (UBT), झारखंड मुक्ति मोर्चा और CPI (ML)  इन सभी नेताओं ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया है।अब तक इस मुद्दे पर 10 से ज़्यादा याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में दायर की जा चुकी हैं, जिनमें मांग की गई है कि SIR प्रक्रिया को फिलहाल रोका जाए।

अब चुनाव आयोग ने 1 अगस्त से 1 सितंबर तक का समय दिया है, जिसमें जनता आपत्ति दर्ज कर सकती है, नाम हटाने या जोड़ने की मांग कर सकती है, और अपने डेटा में सुधार करा सकती है। लेकिन अब सवाल यह है कि जिनके नाम पहले ही बिना जानकारी के काट दिए गए हैं,क्या वो इस प्रक्रिया की जानकारी रखते हैं?क्या उन्हें अपनी गलती सुधारने का मौका मिल पाएगा? और क्या लाखों प्रवासी मजदूर, जो बिहार से बाहर हैं, इस प्रक्रिया का हिस्सा बन पाएंगे?

चुनाव आयोग का कहना है कि ये कदम पारदर्शिता के लिए है ताकि एक भी फर्जी वोट न हो। लेकिन विपक्ष का कहना है यह कदम उन लोगों को वोट से वंचित करने के लिए उठाया गया है जिनकी आवाज़ सत्ता के खिलाफ होती है। सच क्या है? यह आने वाले वक्त में पता चलेगा। आपको क्या लगता है क्या यह कदम जरूरी था? या क्या यह लोकतंत्र में शामिल गरीब तबकों को पीछे धकेलने की कोशिश है?

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