सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका (यानी अपील) दायर की गई है जिसमें बहुत गंभीर आरोप लगाए गए हैं। इस याचिका में कहा गया है कि भारत सरकार ने दिल्ली से गिरफ्तार किए गए 43 रोहिंग्या लोगों को जबरन देश से निकालकर समंदर में फेंक दिया। इस आरोप ने न सिर्फ देश की संवैधानिक आत्मा को झकझोरा है, बल्कि भारत की अंतरराष्ट्रीय छवि और इंसानियत के बुनियादी मूल्यों पर भी गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं।
याचिका में क्या कहा गया है?
याचिका के मुताबिक दिल्ली के मदनपुर खादर, श्रम विहार, बुडेला, विकासपुरी और उत्तम नगर जैसे इलाकों से 6 मई की शाम को 43 रोहिंग्या शरणार्थियों को हिरासत में लिया गया। उन्हें “बायोमेट्रिक डेटा इकट्ठा करने” के नाम पर बुलाया गया, लेकिन हकीकत में उन्हें अलग-अलग पुलिस थानों में बंद कर दिया गया। महिलाओं और बच्चों को 10 घंटे तक भूखा-प्यासा रखा गया, फिर उन्हें इंदरलोक डिटेंशन सेंटर ले जाया गया—बिना किसी वैध दस्तावेज़ या अदालती आदेश के। इसके बाद, इन 43 लोगों को फ्लाइट से अंडमान भेजा गया और फिर नौसेना के जहाजों में बैठाकर म्यांमार की समुद्री सीमा के पास ले जाकर समंदर में उतार दिया गया।
कौन-कौन थे इनमें शामिल?
याचिका के मुताबिक इन 43 लोगों में 13 महिलाएं, जिनमें 3 नाबालिग लड़कियां थीं। 1 कैंसर पीड़ित 66 वर्षीय बुज़ुर्ग। एक 15 वर्षीय छात्र, जो दिल्ली के नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ ओपन स्कूलिंग से पढ़ाई कर रहा था। 4 गंभीर बीमार महिलाएं। एक महिला ने यह भी आरोप लगाया कि समंदर में उतारने से पहले पुलिस अधिकारियों ने उनके साथ अश्लील हरकतें कीं, उन्हें बेहोश किया और फिर समुद्र में फेंक दिया।
“हमें म्यांमार मत भेजो…”
हिरासत में लिए गए लोगों ने अधिकारियों से विनती की कि उन्हें इंडोनेशिया भेज दिया जाए, लेकिन म्यांमार मत भेजा जाए क्योंकि वहां उनकी मौत तय है। लेकिन याचिका के मुताबिक अधिकारियों ने झूठ बोला कि “तुम्हें इंडोनेशिया भेज रहे हैं”, और फिर उनकी आंखों पर पट्टी बांधकर, हाथ-पैर बाँधकर समुद्र में उतार दिया गया। जब वे तैरते-तैरते किसी किनारे पहुँचे तो समझ आया कि वे म्यांमार की सीमा में हैं, यानी उसी देश में जहां से जान बचाकर वे भागे थे।
यह सब हुआ कैसे?
हालांकि असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा ने खुद खुलासा किया कि मटिया डिटेंशन सेंटर में जो विदेशी नागरिक रखे गए थे, उनमें से रोहिंग्या समेत कई विदेशी लोगों को सीधे भारत-बांग्लादेश बॉर्डर पार करा के बांग्लादेश भेज दिया गया। हिमंता सरमा ने ये भी कहा कि ये कोई एक राज्य की कार्रवाई नहीं, बल्कि भारत सरकार का एक Organized और Coordinated ऑपरेशन है। यानी देशभर के डिटेंशन सेंटर्स में जो अवैध विदेशी लोग पकड़े गए थे, उन्हें धीरे-धीरे बॉर्डर पार कराया जा रहा है। हिमंता सरमा का दावा है कि अब माटिया सेंटर लगभग खाली हो चुका है वहां अब बस 30-40 बंदी बचे हैं।
भारत ने भले ही 1951 के Refugee Convention या 1967 के प्रोटोकॉल पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं, लेकिन वह संयुक्त राष्ट्र की “Convention Against Torture” का हिस्सा है। इसके मुताबिक किसी व्यक्ति को उस देश में नहीं भेजा जा सकता जहाँ उसकी जान को खतरा हो। यह “Non-Refoulement” सिद्धांत का भी उल्लंघन है, जिसमें कहा गया है कि शरणार्थी को जबरदस्ती ऐसी जगह नहीं भेजा जा सकता जहाँ उसका जीवन या स्वतंत्रता खतरे में हो। ऐसे में भारत सरकार की ये कथित कार्रवाई अंतरराष्ट्रीय कानूनों, भारतीय संविधान की आत्मा, और मानवता के न्यूनतम मानकों का सीधा उल्लंघन प्रतीत होती है।
सुप्रीम कोर्ट से क्या मांग की गई?
याचिका में निम्नलिखित मांगें की गई हैं:
43 रोहिंग्या नागरिकों को तत्काल वापस लाया जाए।
जो लोग अभी ज़िंदा हैं, उन्हें सुरक्षा दी जाए।
जिन अधिकारियों ने इस अमानवीय कृत्य को अंजाम दिया, उनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई हो।
सुप्रीम कोर्ट इस मामले में स्वतः संज्ञान (Suo Motu) ले, क्योंकि यह भारत की अंतरात्मा की सीधी तौहीन है।