वक़्फ़ (संशोधन) अधिनियम 2025 को लेकर देशभर से उठी आपत्तियों पर अब सुप्रीम कोर्ट सुनवाई करने जा रहा है। भारत के मुख्य न्यायाधीश बी. आर. गवई और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की दो-न्यायाधीशीय पीठ इस मामले की अगली सुनवाई करेगी।
इससे पहले यह मामला पूर्व मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना की अध्यक्षता वाली एक विशेष पीठ के समक्ष 5 मई को रखा गया था। उस सुनवाई में न्यायमूर्ति खन्ना ने कहा था, “मेरे पास बहुत कम समय बचा है, और मैं अंतरिम याचिका पर आदेश सुरक्षित नहीं रखना चाहता।” इसके बाद उन्होंने यह मामला नई पीठ के समक्ष 15 मई के बाद सुनवाई के लिए भेजने को कहा था।
याचिकाकर्ताओं की आपत्तियां क्या हैं?
इस अधिनियम को लेकर 100 से अधिक याचिकाएं दायर की जा चुकी हैं। सभी याचिकाओं को मिलाकर सुप्रीम कोर्ट ने इसे एक स्वतः संज्ञान जनहित याचिका (suo motu PIL) में बदल दिया है, जिससे समान विषयों पर दोहराव टाला जा सके।
याचिकाकर्ताओं का कहना है कि:
यह अधिनियम मुसलमानों के अपने धार्मिक ट्रस्ट (वक़्फ़) को संचालित करने के अधिकार में सीधा हस्तक्षेप करता है। ‘वक़्फ़-बाय-यूज़’ की ऐतिहासिक अवधारणा को हटाया गया है, जिसके तहत लगातार धार्मिक उपयोग से कोई संपत्ति वक़्फ़ मानी जाती थी। अधिनियम के तहत वक़्फ़ बोर्डों में ग़ैर-मुस्लिमों की अनिवार्य नियुक्ति का प्रावधान लाया गया है, जिससे समुदाय की स्वायत्तता कमजोर होती है।
केंद्र सरकार का बचाव
वहीं केंद्र सरकार ने जवाबी हलफनामा दायर कर कहा है कि 2013 से 2024 के बीच वक़्फ़ संपत्तियों की संख्या में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है। इस कानून का उद्देश्य वक़्फ़ के नाम पर हो रहे बड़े स्तर के अतिक्रमणों को रोकना है। सरकार ने 17 अप्रैल की सुनवाई में यह भी आश्वासन दिया था कि जब तक सुप्रीम कोर्ट अंतिम आदेश नहीं देता, तब तक किसी मौजूदा वक़्फ़ संपत्ति को नहीं छेड़ा जाएगा।
सुप्रीम कोर्ट के समक्ष चुनौती क्या है?
अब सुप्रीम कोर्ट के सामने बड़ा संवैधानिक सवाल है कि क्या “राज्य का दायित्व” सभी संपत्ति अधिकारों की रक्षा करना है या अल्पसंख्यक समुदायों को उनके धार्मिक मामलों को स्वतंत्र रूप से संचालित करने का संवैधानिक अधिकार भी उतना ही महत्वपूर्ण है? याचिकाकर्ताओं का कहना है कि इस अधिनियम से मुसलमानों की धार्मिक और सांस्कृतिक स्वायत्तता को ठेस पहुँचती है, वहीं सरकार इसे एक सुधारवादी कदम बताती है।