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सुप्रीम कोर्ट सुनेगा बाटला हाउस के निवासियों की याचिका: “बुलडोज़र डर” पर फिर उठा सवाल

सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश बी. आर. गवई की अगुवाई वाली पीठ ने बाटला हाउस, जामिया नगर और आसपास के इलाकों के 40 से अधिक निवासियों की याचिका सुनने पर सहमति दी है। इन सभी निवासियों ने हाल ही में मिले बुलडोज़र नोटिस के खिलाफ कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया है। इन लोगों का कहना है कि वे सालों से लीगल दस्तावेजों के साथ वहां रह रहे हैं, लेकिन फिर भी अचानक उन्हें बेदखल करने की कोशिश की जा रही है, जिससे पूरे इलाके में डर और घबराहट का माहौल है।

मामला क्या है?

पिछले कुछ दिनों में जामिया नगर, जौहरी फार्म, बाटला हाउस, और मुरादी रोड में कई मकानों पर “गैरकानूनी संपत्ति” के आरोप में तोड़फोड़ के नोटिस चिपकाए गए हैं। वहां पर रहने वाले लोगों और याचिकाकर्ताओं का दावा है कि उन्हें ना तो पहले कोई जानकारी दी गई और ना ही सुनवाई का मौका मिला। बिना किसी लीगल प्रोसेस के सीधे तोड़फोड़ की धमकी दी जा रही है।

याचिका में क्या कहा गया है?

याचिका दाखिल करने वालों ने सुप्रीम कोर्ट से “रहने के अधिकार” (Right to Shelter) की रक्षा करने की अपील की है।
उन्होंने यह भी कहा कि:

“हम वैध रूप से रह रहे नागरिक हैं, जिन्होंने संपत्ति खरीदी है और हर कानूनी दस्तावेज हमारे पास हैं। हमें अपराधियों की तरह ट्रीट किया जा रहा है।”

CJI और अदालतों की पुरानी टिप्पणियां

मुख्य न्यायाधीश बी. आर. गवई ने कुछ दिन पहले महाराष्ट्र में एक कार्यक्रम के दौरान कहा था:

“Right to Shelter एक मौलिक अधिकार है, जो भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत आता है।”

इसी तरह, पूर्व जज न्यायमूर्ति अभय ओका की अध्यक्षता वाली पीठ ने 2023 में उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा की गई बुलडोज़र कार्रवाई पर टिप्पणी करते हुए कहा था:

“रिहायशी इलाकों को बिना कानूनी प्रक्रिया के गिराना अदालत की आत्मा को झकझोर देता है। हम इसे सहन नहीं कर सकते।”

उनका यह बयान तब आया था जब प्रयागराज में एक नागरिक का घर प्रशासन ने एक रात में गिरा दिया, और बाद में कोर्ट में पता चला कि नोटिस ही नहीं दिया गया था।

बुलडोज़र राजनीति: गरीब ही निशाना क्यों?

पिछले कुछ सालों में भारत के कई हिस्सों में बुलडोजर कार्रवाई को लेकर बहस तेज हुई है। उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश और दिल्ली जैसे राज्यों में कई बार प्रशासन ने सीधे मकान या दुकान पर बुलडोज़र चलाकर कार्रवाई की, जबकि कानूनी प्रक्रिया पूरी नहीं हुई थी। सामाजिक कार्यकर्ता और मानवाधिकार संगठनों का कहना है कि ये कार्रवाई अक्सर गरीब, अल्पसंख्यक और वंचित समुदायों पर की जाती है, जिससे उनका जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है।

आगे क्या?

सुप्रीम कोर्ट की अगली सुनवाई में यह देखा जाएगा कि क्या अदालत इस मामले में राहत देती है या फिर याचिकाकर्ताओं को राज्य सरकार से संपर्क करने को कहती है। फिलहाल सभी की नजरें मुख्य न्यायाधीश पर टिकी हैं, जो खुद कह चुके हैं कि “रहने का अधिकार” संविधान से मिला हक है।

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